मेरे अपनों के बीच जीना
कहीं हमारे अपने पीछे ना छूट जाये
जिंदगी को जीने
के लिए सब के अपने अपने तरीके होते है। कोई अपने आप में खुश रह कर जिंदगी जीता है
तो कोई दूसरे को रुला कर जिंदगी जीता है लेकिन जिंदगी के कुछ ऐसे सबक होते हैं
जिन्हें हम तभी सीखते हैं जब जिंदगी की शाम होने लगती है। तब उन लोगों को अहसास
होता है, कि हा ,कुछ तो गलत हुआ है लेकिन तब शायद काफी देर हो
चुकी होती है । कितने लोग है हमारे बीच में जो अपनी पूरी ईमानदारी से यह बताने की
कोशिश करेगे की हा- गाड़ी चलाते समय या फिर कोई भी दुष्कर लक्ष्य का पीछा करते वक्त
या किसी अन्य अवरोध को काबू में करने का प्रयास करते-करते उन बातों को आँखों से
पीछे धकेला हैं, जो वाकई कहीं
अधिक मायने रखती हो । खैर बात को बताने वाले या फिर सुनने वाले कितने होगे जो इस
बात से इत्तेफाक रखते हो। हम यहाँ शिक्षा, समाज और रोजगार की बात नहीं कर रहे वो तो करने वाले कर रहे है। हमने जो कुछ
पिछले 5 साल से कुछ ना कुछ खोया
है उसको अभी वक्त रहे समेटने की जरूरत है ।सच बात तो यह है
की हम असल जिंदगी में कुछ नहीं सीखते और बच्चों की कहानियां जो हमने बचपन में अपने
माँ बाप से सुनी थी उससे भी अनजान बनते नजर आ रहे हैं , क्योंकी की अब हम बड़े हो गए है। लेकिन फिर भी मेरा मानना है
की हम सब ने कुछ तो नैतिक शिक्षा सीखी होगी बचपन में। क्यों हम भूल जाते है की
डिजिटल भाईचारे के चलते हमारा आपसी प्रेम इन्सानियत और अपनों का अहसास जो हमारी
जिंदगी का मकसद होना चाहिए था जो शायद आज धीरे धीरे खत्म होता जा रहा है। क्यों आज के
आधुनिक युग में खाने के साथ साथ ई-मेल खोलना भी लाजमी हो गया है, क्यों किसी की प्रोफाइल फोटो भी अभी लाइक करने
की जरूरत पड़ती है ? अपनों और चलते
फिरते दोस्तों के बीच के रिश्तों को समझना होगा। कहीं ऐसा ना हो की चलते चलते
खुशियों को बांटने वाला मन और दुःख की घड़ी में सिर पर हाथ फेरने वालों की कमी
महसूस होने लगे और मन ही मन में अपने आपको एहसास दिलाए- साॅरी, गलती हो गई ।
हरीश अरोड़़ा
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