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घर जाने की जिद्द कही सबको भारी न पड़ जाए ?


श्रमिकों को सड़क पर पैदल जाते देखकर हम सभी लोग दुखी तो हो रहे है और  उनकी लाचारगी और बेबसी पर हम आंसू भी बहा रहे हैं और साथ साथ हम में से बहुत से लोग सरकार को कोस रहे हैं कि उसने श्रमिकों को सड़क पर मरने के लिए छोड़ दिया है. सरकार के पास लॉकडाउन की स्‍पष्‍ट योजना नहीं थी. लॉकडाउन से पहले श्रमिकों को उनके घर जाने की व्‍यवस्‍था कर देनी चाहिए थी. इसके अलावा न जाने और कितने तर्क दिए जा रहे हैं. किसी व्‍यक्ति के फटे पैर की तस्‍वीर और रेल लाइन पर पड़ी रोटी की तस्‍वीरें सोशल मीडिया में धड़ल्‍ले से शेयर की जा रही हैं.
यह सच बात है कि श्रमिकों के पलायन एक जटिल समस्‍या है और इस को  लोग अपने अपने नजरिये से देख रहे है. श्रमिकों के घर जाने के लिए निकल पड़ने के क्‍या-क्‍या कारण हैं. (1) मजदूरों के पास पैसे खत्‍म हो गए थे और आने वाले दिनें में उनके पास भोजन करने के पैसे नहीं थे,मगर राशन और भोजन की व्‍यवस्‍था व्‍यापक पैमाने पर की गई और और लोगों ने इसका लाभ उठाया और अभी भी उठा रहे हैं. (2) रहने की समस्‍या थी, मकान मालिक को किराया देने के लिए पैसे नहीं थे. यह समस्‍या थी और इससे इन्‍कार भी नहीं किया जा सकता, इसका रास्‍ता भी निकाला जा सकता था. सरकारी और गैर सरकारी संगठनों को मध्‍यस्‍थ बनाकर मकान मालिकों से बात की जा सकती थी. मगर इस दिशा में किसी ने पहल नहीं की. यदि ये श्रमिक सड़क पर आकर सरकार से मांग करते तो राज्‍य की सरकारें निश्चित ही इनके रहने की व्‍यवस्‍था करती. हर मुहल्‍ले में सरकारी स्‍कूल खाली पड़े हैं, जहां इनके रहने की व्‍यवस्‍था की जाती. बिना रोये तो मां भी बच्‍चे को दूध नहीं पिलाती है यहां तो रहने की व्‍यवस्‍था करने की बात है. बताने के लिए समस्‍यां तो बहुत हैं लेकिन यदि समाधान निकालने का प्रयास किया होता तो इस समस्यांा का समाधान भी निकाला जा सकता था.
दोस्तों यह भी सच है कि किसी ने समाधान निकालने का प्रयास नहीं किया, बस एक जिद्द थी कि हमें यहां नहीं रहना है और हमें घर जाना है. और यही जिद्द अब भारी पड़ने वाली है. देश के जिन जिलों, शहरों और कस्‍बों में कोरोना का एक भी केस नहीं था, श्रमिकों के पलायन से अब वहां कोरोना के संक्रमित मरीज दिखने लगे हैं. पहले बात  करते है बिहार के मुजफ्फरपुर और सीतामढ़ी जिले की . उसके बाद पंजाब जिला अमृतसर गाँव चुबाल की यहाँ 4 केस आये है  इसके अलावा सोचने वाली बात यह भी है कि गांव की अर्थव्‍यवस्‍था इतनी मजबूत नहीं है कि वह इतने सारे लोगों का बोझ संभाल सके. यदि गांव की अर्थव्‍यवस्‍था इतनी सुदृढ़ होती तो उन्‍हें घर से निकलने की जरूरत ही नहीं पड़ती. इतने सारे लोगों के गांव में पहुंच जाने से गांव की अर्थव्येवस्था डावाडोल तो होगी ही और इसके साथ कोरोना का ख़तरा भी और बढ़ जायेगा और    इससे शहरों में गांव वालों का  बायकाट होगा और सब्जियों की  भी किल्‍लत होगी और गांव वालों के पास नकद पैसे का संकट भी खड़ा हो सकता है .
इस समस्‍या का एक और पहलू भी है. आने वाले दिनों में जब आर्थिक गतिविधियां शुरू होंगी उस समय काम करने के लिए श्रमिक उपलब्‍ध नहीं होंगे. तब उनकी क्या  स्थिति होगी ? श्रमिकों की अनुपलब्‍धता कितनी बड़ी समस्‍या होगी, इसका अंदाजा आज नहीं लगाया जा सकता है. वक्‍त आने पर पता चलेगा. ऐसी स्थिति में वह किस को कोसेगा ?क्या वह उन पुराने श्रमिकों को वापस आने पर उन्‍हें रोजगार देगा? कहना मुश्किल है. श्रमिकों के पलायन में राजनीति की भी अहम् भूमिका रही है. स्‍थानीय स्‍तरों पर विपक्षी दलों के राजनेताओं ने भी श्रमिकों को पलायन के लिए प्रेरित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी .
कुल मिलाकर समस्‍या तो बड़ी है, मगर पलायन इसका समाधान है के नहीं
इस का फैसला आप पर .....

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