राजनीती में हार की नैतिक ज़िम्मेदारी कौन ले
दिल्ली नगर निगम चुनाव भाजपा भारी बहुमत से जीत गई,लेकिन उसके वोटों के औसत में पिछले निगम चुनाव के मुकाबले
बढ़ोतरी होने के बजाय कमी आई । ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि कांग्रेस और आप को करीब 48 फीसद वोट मिले। राजनीती को
समझने वाले किसी भी इंसान ने कभी नहीं सोचा होगा कि कुछ साल पहले वजूद में आई इक पार्टी विधान सभा चुनाव में 70 में
67 सीटें जीत लेगी और वही पार्टी उसके दो साल बाद निगम चुनाव में हाशिए पर पहुंच जाएगीं।कामयाबी का श्रेय भाजपा पार्टी
के अध्यछ को तो जाता ही है लेकिन हारी हुई पार्टी के अध्यछ इस अनहोनी को मानने से कियों कतराते है ,इस चुनाव में
तीसरे नंबर पर आने वाली कांग्रेस के प्रदेश अध्यछ अजय माकन
ने चुनाव नतीजे के फ़ौरन बाद इस्तीफ़ा दे दिया और आप के
सरजी पार्टी के मुखिया पर भी इस्तीफ़ा का दबाव बढ़ने लगा । इस मुद्दे से लोगों का ध्यान हटाने के लिए “सरजी” के संगीसथियो
ने दनादन इस्तीफे की पेशकश कर दी । और उसमें वे नेता भी शामिल थे जिन्होंने महीना पहले पंजाब में हुई हार की नैतिक
जिम्मेदारी लेते हुए दिल्ली निगम चुनाव के बाद इस्तीफ़ा दे दिया ,लेकिन राजनीती में ऊंचे आदर्श स्थापित करने वाले ,दिल्ली को
लंदन बनाने वाले ,एक पार्टी- विशेष की ईट से ईट तक बजाने वाले ,अपनी हार का ठीकरा ईवीएम पर फोड़ने वाले,और इस दुनिया
में एक ही ईमानदार आदमी आप के “सरजी” ने इस्तीफे की पेशकश तक नहीं की लेकिन हाँ - लोगों से हर बार की तरह गलती
की माफ़ी जरूर मांग ली है ।क्या वजह रही होगी कि ईमानदारी का पाठ पढ़ाने वाले इस अनहोनी को टाल नहीं पाये । बोले तो
बहुत मगर उनका काम नहीं बोल सका, हो सकता है अपने बड़बोलेपन के चलते उन्होंने अपने काम को बोलने का मौका ही ना
दिया हो ! राजनीतिक दलों की चुनाव में हार कोई अनहोनी नहीं है। ऐसा होता रहता है, पर जिस पार्टी का आधार ही
नहीं बन पाया
हो,
उसका तेज पराभव ध्यान खींचता है। सम्भव है पार्टी इस झटके को बर्दाश्त कर ले और फिर से मैदान में आ जाए। पर इस
वक्त उसपर संकट भारी है।
दो साल पहले दिल्ली के जिस मध्यवर्ग ने उसे अभूतपूर्व जनादेश दिया था, उसने हाथ खींच लिया और
ऐसी पटखनी दी है कि उसे बिलबिलाने तक का मौका नहीं मिल रहा है। आने वाले कुछ दिनों में चुनाव आयोग दिल्ली के 21
विधायकों की सदस्यता के बारे में फैसला सुना सकता है। यह फैसला आने के बाद पार्टी किस तरफ जाएगी,
अभी कहना मुश्किल
है। उधर दिल्ली के इलावा भी पार्टी की पंजाब यूनिट में भी बगावत का खतरा है। पंजाब में पार्टी के संयोजक गुरप्रीत सिंह घुग्गी
ने पार्टी हाईकमान को राज्य में स्थानीय कार्यकर्ताओं और नेताओं को नजरंदाज नहीं करने की नसीहत दी है। घुग्गी ने कहा है कि
दूसरे दल आप के विधायकों को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं।
पार्टी के इतिहास में विचार-मंथन के दो बड़े मौके इसके पहले आए
हैं। एक- लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद और दूसरा 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में भारी विजय के बाद। पार्टी की
पहली बड़ी टूट उस शानदार जीत के बाद ही हुई थी। और उसका कारण था विचार-मंथन की प्रक्रिया में खामी। योगेन्द्र यादव
और प्रशांत भूषण के हटने के बाद पिछले साल पंजाब में संयोजक के पद सुच्चा सिंह छोटेपुर का हटना बड़ी घटना थी। वैसे
योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण ने “सरजी” का क्या बिगाड़ा था ? आप
एक छोटा एजेंडा लेकर मैदान में उतरी थी। और यह भी
सच है की व्यापक कार्यक्रम अनुभव की जमीन पर ही विकसित होता है बशर्ते वह खुद कायम रहे। गली-मोहल्लों के स्तर पर वह
नागरिकों की जिन कमेटियों की कल्पना लेकर आई, वह अच्छी थी। इस मामले में मुख्यधारा की पार्टियां फेल हुई हैं। पर जनता
के साथ सीधे संवाद के आधार पर फैसले करने वाली प्रणाली को विकसित करना मुश्किल काम है। यह काम सबसे निचले स्तर
पर किया जाए तो उसके दूरगामी परिणाम हों सकते है,पर उसके लिए क्या पार्टी कुछ समय के लिए अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं
को पीछे रख सकती है? सन 2014 के चुनाव में केजरीवाल को
वाराणसी से चुनाव लड़ने की जरूरत थी क्या ? वैकल्पिक राजनीति
की बातें तो हुईं पर उस राजनीति के विषय खोजे नहीं गए।
जिस मुख्यधारा के दलों के दोषों को दूर करने की माँग के सहारे
आप उभरी थी आज वह खुद उन्हीं दोषों की शिकार है। तो फिर दोष किस को दे ? हार की जिम्मेदारी किस की हो ? जनता को
तो बस इंतजार ही रहेगा और हाँ –जनता को तो लोकपाल का भी इंतजार है । जवाब तो दिल्ली सरकार या फिर केंद्र सर्कार के
पास तो होगा ही ।
Harish Arora
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