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बात जय जवान जय किसान की




harish arora 
जय जवान, जय किसान का नारा कभी पुरे जोश से गुन गुनाया जाता था लेकिन आज यहाँ सेना के हाथ बंधे है वही किसानों के हाथ खाली है दोनों का हमारे देश में ख़ास महत्व है इस के बावजूद हमारी सेना पत्थरबाजी का सामना कर रही है तो किसान आत्महत्या पर मजबूर है किसानों की समस्या आज से नहीं है सालों से किसान परेशान है, कभी कर्जे को लेकर, कभी फसलों के मूल्यों को लेकर,कभी मौसम की मार को लेकर,कभी बेटी की शादी को लेकर आज हालत यह है कि सरकार के केन्द्रीय मंत्री को भी किसानों के कर्ज को लेकर बेतुका बयान देना पड़ रहा है कि आज किसानों द्वारा आत्महत्या करना फैसन सा बनता जा रहा है। 
किसानों की आत्महत्या का मामला केवल एक राज्य का मामला नहीं है,पंजाब,उत्तरप्रदेश,मध्यप्रदेश,राजस्थान सभी राज्यों के किसानों को मार झेलनी पड़ रही है उत्तरप्रदेश में करीब 79,08,100 किसान परिवार कर्ज में डूबे हुए है, महाराष्ट्र दूसरे ओर राजस्थान तीसरे स्थान पर है किसानों की कर्मभूमि कही जाने वाली पंजाब की धरती अब उनकी ही मरनभूमि बनती जा रही है दरअसल खेती की बारिकियों के जानकार बताते है कि पहले बाज़ार और खेती के बीच का रास्ता बनिया समुदाय का आढ़ती तय करता था और वह पारंपरिक तरीके से कर्ज पर ब्याज तो बढ़ा देते थे लेकिन वह जमीन पर कब्ज़ा नहीं करता था वह बेटी की शादी पर और अन्य सामाजिक रीति-रिवाजो के लिए भी कर्जा दे देते थे लेकिन जट आढ़तियों का इस कारोबार में प्रवेश होने से खेती का बाजारीकरण हुआ और कर्ज से लेकर ट्रेक्टर, कीटनाशको, खाद व् बीज की दुकानों पर एक ही वर्ग का कब्ज़ा बढ़ गया, जिस से छोटे किसान बड़े किसानों के जाल में फसते चले गये और आत्महत्याओं का सिलसला शुरू हुआ सरकार बी टी कॉटन सहित अन्य जीने सम्बंधित फसलों को लेकर तो आई लेकिन किसानों को बदलाव किया हुआ बाज़ार महैया नहीं करवा पाई, इस के बावजूद बाज़ार अपनी रफ़्तार से चलता गया। पिछले ढाई दशक से पंजाब में 20,000 से अधिक किसान आत्महत्या चुके है गौर करनी वाली बात यह है कि सबसे ज्यादा आत्महत्याएं मालवा जिले में हुए यहाँ अकाली नेता प्रकाश सिंह बादल और पंजाब के मुख्मंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह का क्षेत्र आता है एक अध्यन के मुताबिक पंजाब के हर घर पर 3.05 लाख का कर्ज है और इस के उलट अकेले आढ़तियों ने पिछले दो दशक में 6,427.27  करोड़ रूपए कमाए है ग्रामीण मजदूर किसानों का और भी बुरा हाल है पिछले कई सालों से लुधिआना, जलंधर, फगवाड़ा जैसे शहरों में औद्योगिक विकास की गति कम होने से मजदूरों को खेतों में मजदूरी करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा हैइस लिए उनकी हालत और भी ख़राब हो गई हैअनियोजित (unplanned) शहरी विकास, भूमि अधिग्रहण और मजबूत सांस्कृतिक ताने बाने के बीच पंजाबियत ने अपनों को ही मार डाला और इस का समाधान शायद किसी के पास नहीं है चाहे वह नेहरु मॉडल हो या फिर भगवा मॉडल,कही ऐसा ना हो कि कुछ सालों बाद हमारे देश में किसानों की अमर कहानियां लिखने वाले कुछ इस अंदाज में पेश करे
मैं पेड़ो में गोंद की तरह
गन्ने में रस की तरह
फल में सुगंध की तरह
छुपा रह सकता हूँ
मुझे खोज पाना उतना ही दुश्वार है
जितना देह में ढूढना मौत को
राजेंदर उपाध्याय



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