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खतरों और मुश्किलों के बीच यह बचपन






आज हम कई तरह के खतरों और मुश्किलों के बीच खड़े है । आतंकवाद, उग्रवाद, सांप्रदायिक कट्टरता, अशिक्षा, बेरोजगारी, महंगाई, कुपोषण और न जाने क्या-क्या,और इन सभी समस्याओं से निपटने के लिए बड़े-बड़े लोग, बड़ी-बड़ी बातें के साथ, नीतियां और योजनाएं बनाने में भी मशरूफ हैं। लेकिन आज देश में सब से बड़ी समस्या है -  बचपन में गुम होता बचपन की। बच्चों की छोटी छोटी बातों को हम अक्सर छोटी समज कर टाल देते है। लेकिन ऐसा करना कितना घातक होता है, यह तब पता चलता है, जब ग्रेटर नोएडा में दोहरा हत्याकांड जैसी घटनाएं हमारे सामने आती हैं। यहां एक 15-16 साल के किशोर ने अपनी मां और बहन का बेरहमी से कत्ल कर दिया। कारण चाहे कोई भी क्यों ना हो । पांच दिनों तक फरार रहने के बाद वह पुलिस की गिरफ्त में आया। उसके पिता दुखी हैं, लाचार हैं और दुविधा में हैं कि अब अपने नाबालिग बेटे के साथ वे क्या करें? उसे माफ करें या सजा दिलवाएं? यूं आरोपी किशोर के जुर्म पर फैसला किशोर न्यायालय ही करेगा और पिता की माफी से उसके फैसले पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि उसने अपराध भले अपने परिजनों के साथ किया है, लेकिन कानून की नजर में यह समाज के खिलाफ अपराध है। आरोपी के पिता अपने बच्चों का भविष्य बनाने के लिए पैतृक गांव छोड़कर ग्रेटर नोएडा आए थे।
खबरों के मुताबिक आरोपी को पढ़ाई के लिए घर में डांट पड़ती थी और होशियार बहन के साथ उसकी तुलना होती थी। इस बात से उसके भीतर गुस्सा और तनाव बढ़ता गया, जिसकी परिणति आखिर में अपनी मां और बहन की हत्या के रूप में हुई। परिजनों के मुताबिक उस किशोर को हाई स्कूल गैंगस्टर क्राइम गेम मोबाइल पर खेलने की आदत थी। यह गेम वेगास क्राइम सिटी और अमेरिकन हाई स्कूल गैंग की कहानी है।
फिलहाल यह नहीं पता कि मां और बहन की हत्या करने वाले किशोर पर इस खेल का कितना प्रभाव था। लेकिन चिंता का विषय यह है कि हमारे बच्चे हमसे ही दूर होकर कौन सी दुनिया में जा रहे है और कैसे जीने की कोशिश कर रहे है ? अभी कुछ समय पहले ही ब्लू व्हेल गेम के चलते चंडीगढ़ में नाबालिगों की जानें जा चुकी है । डिजिटल भारत के सहारे यह भी तो संभव नहीं है कि बच्चों को कम्प्यूटर या मोबाइल से दूर रखा जाए। लेकिन यह कड़वी सच्चाई है कि बच्चों और किशोरों में यौन अपराध भी तेजी से बढ़ रहे हैं। चाहे वह निर्भया गैंगरेप का केस हो, प्रद्युम्न हत्याकांड में भी एक नाबालिग को ही आरोपी माना गया है। कड़वी सच्चाई यह भी है कि हम अपने बच्चों को कितना अपना समय देते है ? कितनी बार उनके साथ बैठ कर हम उनकी बातें सुनने का धैर्य रखते है ? उनकी परेशानियों और तनावों के बीच खड़ा होकर हम कितनी बार उनको यह अहसास दिलाने में कामयाब होते है की हम ही है उनके अपने । पढ़ाई में अगर वह अच्छा  नहीं करते तो कितने लोग हम में से है जो उन्हें इस तनाव से मुक्त करने की कोशिश में होते है। हम में से कितने है जो यह कहते है कि अगर वे नहीं कर पाए, तो उनका जीवन बर्बाद हो जाएगा। याद करें, सितम्बर में रेयान स्कूल में हुए कांड का और उसके लिए भी यही कहा जा रहा है कि परीक्षा से बचने के लिए उसने ऐसा घातक कदम उठाया। अभी नवंबर में एक और चौंकाने वाली घटना सामने आई है, जिसमें एक चार साल के बच्चे पर अपनी ही हमउम्र बच्ची के साथ यौनशोषण का आरोप है। एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं, कि साल 2003 में दुष्कर्म के आरोप में गिफ्तार होने वाले नाबालिग अपराधियों की संख्या 535 थी, जबकि साल 2013 में यह संख्या बढ़कर 10,693 तक जा पहुंची थी। दस साल में किशोर अपराधियों की संख्या में यह इजाफा डरावना है। बलात्कार, हत्या, चोरी ये सारे अपराध क्या सचमुच अब बच्चों का खेल हो गए हैं ? अगर ऐसा है, तो क्या इसके लिए हम बच्चों को जिम्मेदार ठहराएंगे या यह कहेंगे कि बच्चे, अपने बड़ों से ही सीखते हैं। और यह भी तो सच है की आज के बच्चे अपने चारों ओर केवल नाराजगी, खीझ, तनाव ही तो देख रहे हैं, चाहे वह राजनीतिक स्तर हो या फिर सामाजिक स्तर । सांस्कृतिक माहौल भी तो जरूरी है जो शायद हम समय के चलते भूलते जा रहे है तो फिर इस का जवाब कौन देगा ?
अगर आप के पास कोई स्झाव है तो जरूर बताना
हरीश अरोरा 

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